मौलाना अबुल कलाम आजाद कौन थे ?
मौलाना अबुल कलाम आजाद कौन थे ?

मौलाना अबुल कलाम आजाद कौन थे ?

मौलाना अबुल कलाम आजाद कौन थे ?

जन्म: 11 नवम्बर, 1888  ————————— निधन: 22 फरवरी, 1958

मौलाना अबुल कलाम आजाद हिन्दुस्तानी इतिहास के श्रेष्ठतम नेता थें जिन्हें महात्मा गांधी ने भारत का भवीष्य कहकर सम्बोधित किया था। वो सच्चे धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थें जिन्होंने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई बल्कि स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्र निर्माण में भी महत्वपूर्ण भमिका निभाई। मौलाना आजाद हिन्दुस्तान के पहले शिक्षा मंत्री थे।

अगर वो एक नेता थे तो एक पत्रकार भी थें, इनके अलावा बेहतरीन शायर, दार्शनिक और उच्च कोटि के वक्ता थें। मौलाना आजाद खुद कहतें हैं “अगर हम मैदान में दौड़ रहें हैं तो कदम कदम पर हमें ढ़ोकरों से दो चार होना पड़ेगा, उससे हमें घबराना नहीं चाहिए उससे हमें उकताना नहीं चाहिए, मर्द बनकर तमाम जिम्मेदारियों को उठाना चाहिए और उन परेशानियों का सामना करना चाहिए” ।

यू टयूब खोलकर अगर आप मौलाना अबुल कलाम अजाद लिखें तो उनकी अपनी आवाज में ये भाषण के कई विडियो मिलेगी मैंने इस भाषण को कई बार सुना एक बार नहीं सौ बार सुना। मैं इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकता कि मौलाना अबुल कलाम आजाद किस स्तर के वक्ता रहे होंगे उनकी ये दो मिनट की भाषण मेरे सिने को चीर कर मेरे जिस्म में एक नई रूह फूंक देती है। तो आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि जब मौलाना आजाद भाषण देते होंगे तो किस तरह जमाने में क्रांति ला देते होंगे।

मौलाना अबुल कलाम आजाद की जीवनी

मौलाना अबुल कलाम आजाद का पूरा नाम मूहीउद्दीन अहमद था मौलाना अबुल कलाम आजाद का पूरा नाम मूहीउद्दीन अहमद था। 1888 में उनका जन्म मक्का में हुआ। मौलाना आजाद की मात्र भाषा अरबी थी। उन्होनें बाद में उर्दु, हिन्दी, फारसी और अंग्रेजी भी सीखी ।

मौलाना आजाद ने अपनी शिक्षा की शुरूआत पवीत्र किताब कुरान से की। वो 1898 में अपने पिता मौलाना खैरउद्दीन के साथ कलकत्ता आ गए। उनका प्रारंभिक जीवन मक्का में गुजरा, जब 1898 में हिन्दुस्तान आए तो वापस कभी नहीं गए और इस राष्ट्र के खातीर अपनी पूरी जिंदगी खर्च कर दी। 1908 में शहर कलकत्ता में उनके पिता का निधन हो गया।

मौलाना अबाउल कलम आज़ाद का करियर ।

मौलाना अबुल कलम आज़ाद की शैक्षणिक यात्रा की शुरूआत घर पर हुई, बचपन से ही उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था। उन्होंने जब सर सैय्यद के छपे हुए लेख पढ़े तो उन्हें माॅर्डन एजूकेशन की महत्व का पता चला।

मौलाना आजाद खुद लिखते हैं कि “सर सैय्यद के लेख पढ़ने का मौका मिला, माॅर्डन एजुकेशन का उनका ख्याल मेरे उपर बहुत असर हुआ और मैंने महसूस किया कि जब तक कोई व्यक्ति माॅर्डन एजूकेशन, साइंस, दर्शन, अंग्रेजी ना पढ़ ले तब तक वो सही शिक्षा को हासील ही नहीं कर सकता।

मौलाना आजाद के विद्वान होने का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उन्होने अपनी पहली मैग्जीन ‘नेरंग-ए-आलम’ छपवाया तब उनकी उम्र 12 वर्ष थी।

देश को आज़ाद कराने में अबुल कलाम का योगदान।

1914 में अल हिलाल के नाम से पेपर निकाला जिसपर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद उन्होंने अल बलाग के नाम से दूसरा पेपर निकाला।सरकार इनकी क्रांतिकारी लेखों पर प्रतिबंध लगाती रही और मौलाना आजाद लिखते रहें फलस्वरूप 1916 में अंग्रेजी सरकार ने मौलाना आजाद को कलकत्ता से बाहर कर दिया और उनमें पाबंदी लगा दी।

पंजाब, दिल्ली, यू.पी और मुम्बई के सुबो ने पहले से ही मौलाना आजाद पर पाबंदी लगा रखी थी लिहाजा 1916 में मौलाना आजाद रांची पहुंचे। कुछ दिनों के बाद रांची में ही उन्हें नज़र बंद कर दिया गया। मैं जिस शहर में यह लेख लिख रहा हूं उस शहर ने भी मौलाना आजाद की मेहमान नवाज़ी की है।

जमा मस्जिद रांची की दिवारें आज भी याद दिला रही है कि मौलाना आजाद ने यही से हिन्दु मुस्लिम एकता का सूर फूंका था। रांची की सड़कों पर आज भी मौलाना आजाद की कदमों की आहट सुनाई देती है और मुबारक है मोराबादी की वो कमरें जहां मौलादा आजाद ने रातें गुजारी।

शहर रांची में रहते हुए मौलाना आजाद ने अंजुमन इस्लामिया बनवाया, मदरसा इस्लामिया बनवाया, अपर बाजार में मौलाना आजाद काॅलेज तथा आजाद हाई स्कूल का निर्माण करवाया।

आज अंजुमन इस्लामिया के अंतर्गत अनेक सामाजिक कार्य हो रहे हैं जिसके प्रमुख उदाहरण अंजुमन अस्पताल, रहमानिया मुसाफिर खाना, रातू रोड़ कब्रिस्तान आदि। 1920 मंे मौलाना आजाद के नज़रबंदी के दिन पूरे होते हैं और वो वापस हो जाते हैं। 

मौलाना आज़ाद की हिन्दुस्तानी राजनीति में दिलचस्पी ।

मौलाना आजाद ने जब हिन्दुस्तानी राजनीति में दिलचस्पी लेनी शुरू की तब वह सिर्फ 18 वर्ष के थे। उन्होनें खुद लिखा है कि “मैं लगातार 12 साल से अपने देश के लोगों को स्वतंत्रता और अधिकार की लड़ाई की शिक्षा दे रहा हूं, मेरे 18 वर्ष की उम्र की जब मैंने इस रास्ते में पाठन, लेखन एवं वक्ता के रूप में कार्य शुरू किया” मौलाना आजाद ने कई किताबें लिखी जिनमें आजाद की कहानी (1921 में अलीपूर जेल में लिखीं), गुब्बारे खातीर (किला अहमद नगर जेल में), इंडिया विन्स फ्रिडम और तर्जुमानुल कुरान मुख्य रचनाएं हैं।

1930 में जब कांग्रेस ने सत्याग्रह शुरू की मौलाना आजाद को डेढ़ साल के लिए जेल में रखा गया। 1939-1946 तक कांग्रेस के अध्यक्ष रहें, जो उस समय सबसे कम उम्र के कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में थें। इसी बीच 1942 की भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू होती है और मौलाना आजाद की गिरफ्तारी फिर हो गई। जो 1945 तक रही इसी बीच उन्होनें अपनी पत्नी जुलेखा बेगम को खो दिया।

1950 के दशक में हिन्दुस्तान में धर्मनिरपेक्ष के सबसे बड़े चेहरों में से एक चेहरा मौलाना आजाद का था। जिन्होनें आखरी वख्त तक बटवारे को सही नहीं माना और उन्होनें कहा कि “ आओ प्रण करें यह देश हमारा है और हम इसके लिए हैं और हमारी आवाज़ देश की भविष्य के फैसले का हिस्सा है हिन्दु मुस्लिम अगर मिल नहीं सकते तो मानवता के लिए बहुत नुकसान है।

धर्म इंसानीयत के बीच दुश्मनी पैदा करने के लिए नहीं बल्कि भाईचारा पैदा करने का एक ज़रीया है”। आजाद ये भी कहते थे कि आजादी से बेहतर हिन्दु मुस्लिम एकता है, अगर मुझे आजादी को छोड़कर हिन्दु मुस्लिम एकता मिले तो मैं उसे अपना लूंगा। आखीरकार उनकी सारी कोशिशें बेकार गई और देश दो भागों में बंट गया हिन्दुस्तान और पाकिस्तान 1947 में बंटवारे के दौरान इस देश ने कई कत्ल देखें जुल्म और सितम ने इस देश के भाईचारे का गला घोट दिया।

मौलाना आजाद को अंतरिम सरकार ने शिक्षा मंत्री का पद दिया जिस पर पूरी जिंदगी वो आसीन रहें। इस बीच उन्होनें राष्ट्रीय निर्माण में भी बहुत आगे बढ़कर हाथ बढ़ाया एवं उनके रहते हुए न्ळब् का गठन हुआ एवं कुछ प्रमुख अकादमीयों का गठन हुआ जिसमें संगीत नाटक अकादमी 1953, ललीत कला अकादमी 1954, साहित्य अकादमी 1954 प्रमुख हैं।

अबुल कलाम का निधन ।

आजादी के 11 वर्ष बाद 22 फरवरी 1958 को यह दिपक बुझ गया और इन्हें जमा मस्जिद दिल्ली के करीब दफनाया गया। 11 नवंबर 1959 को देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पहला मौलाना आजाद मेमोरियल लेक्चर देते हुए कहा “ मौलाना आजाद एक अच्छे धार्मिक लिडर थें, पढ़े लिखे विद्वान थें, पत्रकार थें, शायर थें तथा दार्शनिक थें और इन सब से ज्यादा एक बेहतरीन राजनीतिज्ञ थें। आजादी की लड़ाई में उनकी सेवा और बलीदानों को कभी भुलाया नहीं जा सकता और न ही उनके हिन्दुस्तान के प्रथम शिक्षा मंत्री के रूप में सेवा को नज़रअंदाज किया जा सकता है।

  • चाह नहीं, मैं सुर बाला के गहनों में गुँठा जाऊँ
    चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ
    चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरी डाला जाऊँ
    चाह नहीं देवों के सिर पर चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ
    मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक
    मात्र भूमी पर शीश चढ़ाने जिस पद पर जावे वीर अनेक।।

अबु नशर
एम.ए पाॅलिटिकल साइंस
रांची यूनिवर्सिटी, रांची
मो0 न0 9122377359

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